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कमलेश्वर साहित्यकार
– फोटो : साेशल मीडिया
विस्तार
20वीं सदी के सशक्त लेखकों में शुमार होने वाले कमलेश्वर की जयंती आज है। मैनपुरी में 6 जनवरी 1932 को जन्मे कमलेश्वर ने फरीदाबाद में 27 जनवरी 2007 को अंतिम सांस ली थी। उन्हें पद्म भूषण, पटकथा लेखन पर फिल्म फेयर पुरस्कार सरीखे बड़े पुरस्कार मिल चुके हैं। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा में उन्हें महारत हासिल थी। कमलेश्वर का अलीगढ़ से खासा नाता था। वह अपने जीवनकाल में कई बार अलीगढ़ आए। इसे वह अपना दूसरा घर मानते थे। उनकी जयंती पर उनके साथ रहे साहित्यकारों ने अपने संस्मरण साझा किए हैं।
लेखन माध्यम है, मेरी मंजिल नहींः कमलेश्वर
जब लिखते-लिखते संतोष नहीं मिलता, तो मैं डायरी लिखता हूं। फिर वह अधूरी छूट जाती है। आखिर कितना लिखे आदमी? महीनों से पड़े जरूरी पत्र जिनका उत्तर नहीं जा पाता, उनके उत्तर देने में लग जाता हूं। हर पत्र का समुचित सम्मानजनक उत्तर देना मैं फर्ज मानता हूं। छपा या टाइप पत्र मेरे पास से कभी नहीं गया। लिफाफे पर अपना स्टिकर लगाकर पत्र भेजता हूं। जी, मैं क्या करूं मेरी यह आदत है। कभी-कभी नाराजगी में भी पत्र लिखता हूं, पर उसमें भी एक सांस्कारिक संयम रहता है, जो मुझे साहित्य ने ही दिया है। पाठकों के स्नेह का जहां तक सवाल है, मैं बहुत भरा-पूरा लेखक हूं। ऐसी-ऐसी छोटी-छोटी जगहों से पत्र आते रहते हैं, मैं उनके उत्तर देता हूं। फेंकता एक भी पत्र नहीं हूं। कभी-कभी इतने सारे पत्रों का पढ़ना भी एक संकट हो जाता है। सोम, मंगल, बुध को समय मिलता है मुझे। बृहस्पति, शुक्र, शनिवार पत्रकारिता लेखन के लिए है। यह परंपरा मुझे अपने गुरु बच्चन जी से मिली। जी, मेरे दीक्षा गुरु यशपाल जी थे और शिक्षा गुरु बच्चन जी। और साहित्य-गुरु? साहित्य-गुरु तो परंपरा ही रही है। वैसे मेरे कहानीकार और उपन्यासकार को अलग-अलग करने की जरूरत भी नहीं है। -प्रेमकुमार, वरिष्ठ साहित्यकार (कमलेश्वर से साक्षात्कार के अंश)
कमलेश्वर अलीगढ़ के साहित्यिक -सामाजिक आंदोलनों और उससे जुड़े लेखक -बुद्धिजीवियों से बहुत प्रभावित थे। हमारे साथ तो उनके पारिवारिक रिश्ते थे, लेकिन वे प्रख्यात शायर शहरयार, उर्दू कथाकार काजी अब्दुल सत्तार और राही मासूम रजा के भी निकट मित्रों में थे। राही साहब से उनकी दोस्ती का सिलसिला अलीगढ़ से ही शुरू हुआ था। राही जब अपना सुप्रसिद्ध उपन्यास “आधा गांव” लिख रहे थे, उस समय वे और कुंवरपाल जी साथ ही वली मंजिल (शमशाद मार्केट) में रहते थे। इसे वे उर्दू लिपि में लिख रहे थे और कुंवरपाल जी उसका लिप्यंतरण हिंदी में कर रहे थे। पूरा होने पर उपन्यास के कुछ अंश कुंवरपाल जी ने कमलेश्वर को भेज दिए। कमलेश्वर तुरंत अलीगढ़ आ गए पांडुलिपि लेने और कहा कि हम इसे ‘अक्षर प्रकाशन से छापेंगे। आधा गांव का पहला संस्करण वहीं से छपा। ये शुरुआत थी कमलेश्वर और अलीगढ़ के संबंधों की। वे कितनी बार अलीगढ़ आए, हम लोगों के साथ रहे, कार्यक्रमों का हिस्सा बने … ये संख्या अनगिनत है। स्वभाव से वे बेहद घरेलू भी थे। हमारे बेटे और बेटी की शादी में वे अभिभावक के रूप में थे और मेहमानों की अगवानी कर रहे थे। एक बार जब वे अलीगढ़ आए तब वह सारिका के संपादक थे। वे दो दिन रुके। हमारा छोटा सा घर था मैरिस रोड में, दूसरी मंजिल पर। वे बाहर खुले में चारपाई लगवाकर सोए। कहा – “खुले आसमान के नीचे रात में सोना… बंबई में ये नहीं मिलता”।-नमिता सिंह, साहित्यकार
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