Lucknow News: जानिए कितना बदल गया लखनऊ का हजरतगंज, कभी भारतीयों के जाने पर थी रोक!

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लखनऊ. जिस हजरतगंज को लखनऊ का दिल कहा जाता है. जिसे देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं, उसी हजरतगंज में अंग्रेजों के वक्त भारतीयों के जाने पर सख्त रोक थी. आइए जानते हैं हजरतगंज की कहानी विस्तार से. बात शुरू होती है 1810 से जब नवाबों के शहर लखनऊ के नवाब सआदत अली खान ने एक लंबी सी सड़क बनवाई थी, जो कि दिलकुशा कोठी से लेकर रेजीडेंसी तक जाती थी. साथ ही उन्होंने हजरतगंज के क्षेत्र में कुछ दुकानें और अंग्रेजों के रहने के लिए कमरे बनवाए थे. यहीं से हजरतगंज एक बाजार के रूप में विकसित होने लगा था. लेकिन जब अवध की गद्दी पर नवाब अमजद अली शाह 1847 से लेकर 1856 के बीच बैठे, तो उनके वक्त हजरतगंज तेजी से विकसित होने लगा और एक बड़े बाजार के रूप में बनकर उभरा.

तभी से लोगों ने इसका नाम हजरतगंज रख दिया. क्योंकि अमजद अली शाह को लोग प्यार से हजरत बुलाते थे. उनके बसाए हुए बाजार को लोगों ने हजरतगंज कहना शुरू कर दिया. विकसित होते इस बाजार पर अंग्रेजों का दबदबा बढ़ गया था. यही वजह है कि इस बाजार में भारतीयों के जाने पर सख्त रोक लगी हुई थी. यहां पर सिर्फ अंग्रेज ही जाते थे.

जिसे बसाया उसकी मिट्टी में हुए दफन
अमजद अली शाह का मकबरा भी उनकी पसंदीदा जगह हजरतगंज में ही बना हुआ है. इस मकबरे को 1847 से लेकर 1856 के बीच में उनके बेटे और अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह ने बनवाया था. लखनऊ के इतिहासकार डॉ. रवि भट्ट के मुताबिक, 17 फरवरी 1847 को पीठ में फोड़े की वजह से अमजद अली शाह का इंतकाल हो गया था. इसके बाद उनके बेटे वाजिद अली शाह ने उनको इसी मकबरे में दफनाया था.

आज का हजरतगंज
वर्तमान में हजरतगंज काफी विकसित हो चुका है. यहां पर कई बड़े ब्रांड के शोरूम हैं. लोकल मार्केट भी हैं. सिनेमा हॉल हैं. बड़े रेस्टोरेंट हैं. स्ट्रीट फूड भी हैं. बेंच लगी हैं, जहां बैठकर लोग इसकी खूबसूरती को निहारते हैं. क्रिसमस, नया साल, 26 जनवरी और 15 अगस्त सभी त्योहारों पर हजरतगंज अवध की शान होने की कहानी बयां करता है. आज यहां पर अस्पताल भी है. यही नहीं, देशभर की राजनीति की दिशा और दशा तय करने वाला मुख्यमंत्री कार्यालय और विधान भवन भी यहीं है. इतना ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी का प्रदेश मुख्यालय भी यहीं पर है.

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FIRST PUBLISHED : December 23, 2022, 12:46 IST

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